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अब हाथ की हथेली बताएगी की आप की किस्मत में है की नहीं धनअब हाथ की हथेली बताएगी की आप की किस्मत में है की नहीं धन

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कुछ लोग होते हैं जो हमेशा अपनी हर बात के लिए किस्मत को दोष देते हैं। कुछ भी हो इन्हें सिर्फ अपनी किस्मत पर ही रोना आता है। अगर आप भी यही समझते हैं कि आपकी किस्मत आपका साथ नहीं दे रही है तो प्रतिदिन यह उपाय करें। इस उपाय को करने से कुछ ही दिनों में निश्चित ही आपकी किस्मत चमक उठेगी।

उपाय
जब भी भोजन बनें, पहली रोटी को अलग निकालकर रख लें। इसके चार बराबर भाग कर लें। चारों भागों पर कुछ न कुछ मीठा जैसे- खीर, गुड़ या शक्कर आदि रख दें। इसका पहला भाग गाय को, दूसरा काले कुत्ते को, तीसरा कौए को और चौथा चौराहे पर रख दें। कुछ ही दिनों में आपको परिवर्तन दिखने लगेगा।

ऐसे हाथ वालों पर होती है पैसों की बरसात....
हमारे हाथों में केवल कोई एक लकीर ही हमें धनवान नहीं बना सकती। इंसान के हाथों में ऐसे कई योग होते हैं जो उसे कुबेर जैसा धनवान बनाते हैं। ऐसे लोगों के हाथों में कोई एक चिन्ह या निशान ही उन्हें पूरी तरह संपन्न नहीं बना सकता।

बल्कि पूरे हाथ के लक्षण देख कर ये बताया जा सकता है कि उस व्यक्ति पर लक्ष्मी कितनी मेहरबान है।हाथों में ऐसे कई लक्षण होते हैं जिनसे व्यक्ति की किस्मत चमक जाती है और उस पर धन की बरसात लगातार होती है।

आइए जानते हैं कि हाथों में वो ऐसे कौन से लक्षण है जो व्यक्ति को करोड़पति बना सकते हैं। - जब हथेली मध्य से ऊपर उठी हुई हो तो जातक समृद्ध होता है। ऐसी स्थिति में यदि सूर्य रेखा यानी रिंग फिंगर के नीचे के क्षेत्र से निकलने वाली रेखा और मस्तिष्क रेखा के साथ ही बृहस्पति यानी इंडैक्स फिंगर के नीचे वाला पर्व सुविकसित हो तो ऐसा व्यक्ति करोड़पति होता है।

- अंगूठा यदि मोटा और गद्देदार हो तो व्यक्ति सम्पन्न होगा।

- जब भाग्य रेखा यानी मिडिल फिंगर के क्षेत्र से निकलने वाली रेखा, सूर्य रेखा और बृहस्पति का संबंध बने और साथ ही मणिबंध जंजीरदार हो तो ऐसा व्यक्ति करोड़पति होता है।

- हथेली में वर्ग का चिन्ह हो साथ ही सूर्य रेखा और भाग्य रेखा के साथ ही बुध रेखा यानी लिटिल फिंगर के क्षेत्र से निकलने वाली रेखा सभी अच्छी स्थिति में हो तो व्यक्ति करोड़पति बनता है।

- जिसके हाथ में कलश, ध्वजा, मछली, चक्र, दंड आदि का चिन्ह होता है तो ऐसा व्यक्ति करोड़पति होता है।

- यदि हथेली में मस्तिष्क रेखा, बुध रेखा, और भाग्य रेखा से त्रिकोण बनता है तो व्यक्ति निश्चित ही अमीर होता है।

- जिसके हाथ में सुपष्ट जीवन रेखा, स्वस्थ्य भाग्य रेखा और बिना किसी दोष की लम्बी सूर्य रेखा होती है तो ऐसे में व्यक्ति के हाथ में अष्टलक्ष्मी योग बनता है। ऐसा व्यक्ति अतुल्यनीय धन सम्पति का स्वामी होता है।

- यदि सूर्य पर्वत यानी रिंग फिं गर के नीचे का क्षेत्र विकसित हो सूर्य रेखा हथेली के मध्य में आकर शुक्र पर्वत की ओर जाती है। रेखा पर किसी तरह की बाधा ना हो तो ऐसा व्यक्ति राजराजेश्वर योग होता है। ऐसे लोगों के पास अपार सम्पति होती है।

- यदि गुरू पर्वत यानी इंडैक्स फिंगर के नीचे वाले क्षेत्र पर क्रास का चिन्ह हो भाग्य रेखा , जीवन रेखा, और सूर्य रेखा सपष्ट हो तो साथ ही गुरू पर्वत के साथ ही मंगल पर्वत भी पूर्ण विकसित हो तो ऐसा व्यक्ति भी अपने जीवन में अत्याधिक सफलता और समृद्धि प्राप्त करता है।

 हस्तरेखा से जाने कब होगा विवाह और कब होगा भाग्योदय

ज्योतिष के विभिन्न रूपों में हस्तरेखाओं की गणना करना काफी दिलचस्प है। इसमें न तो जन्म समय या दिनांक की समस्या रहती है और न ही किसी जन्म पत्रिका की आवश्यकता, जहां है जैसे हैं की स्थिति में जातक का के भाग्योदय के बारे में बताया जा सकता है। यहां आपको ऐसे ही टिप्प दिए जा रहे हैं जिनके जरिए आप अपना भविष्य खासतौर पर वैवाहिक भविष्य पता कर सकते हैं।

विवाह रेखा एक से ज्यादा हो तो जो रेखा लम्बी हो उसे विवाह की रेखा समझना चाहिए। शेष छोटी रेखाएं प्रेम संबंधों या सगाई के बारे में बताती हैं। प्रधान रेखा यदि लम्बी हो लेकिन लहरदार होकर पतली हो जाए तो यह जीवन साथी के स्वास्थ्य के उतार-चढाव को दर्शाती है। सबसे छोटी अंगुली (किनिष्ठका) के नीचे बुध का स्थान माना गया है। यहीं से हृदय रेखा निकल कर बृहस्पति के स्थान की तरफ जाती है। अंगुली के मूल में और हृदय रेखा के मध्य के स्थान पर दिखाई देने वाली आड़ी रेखाओं से व्यक्ति के विवाह का आकलन किया जाता है। रेखाओं की संख्या, स्थिति और उनकी बनावट से विवाह की आयु, स्वरूप, विवाह की संख्या और जीवन साथी की शारीरिक बनावट का आकलन किया जाना चाहिए।

कुछ लोग प्रेम विवाह के लिए उक्त रेखाओं से गणना करते हैं। लेकिन वास्तव में प्रेम विवाह के लिए हथेली में बृहस्पति, शुक्र और मंगल के स्थान भी बहुत प्रभावी देखें गये हैं। हालांकि प्रेम विवाह होगा या नहीं, इसकी जानकारी के लिए बुध के स्थान पर पड़ी रेखाओं से काफी कुछ स्पष्ट किया जा सकता है। लेकिन प्रेम विवाह में आ रही अड़चने और प्रेमिका (या प्रेमी) के स्वभाव और चरित्र के बारे में शुक्र और बृहस्पति से अंदाजा लगाना ठीक रहेगा।

जब विवाह रेखा दूसरी प्रधान रेखाओं की तुलना में निम्न या उच्च दिखाई दे तो यह अंतरजातीय विवाह की सूचक है। कुछ विद्वान इसे अपने से धनी या निर्धन परिवार में विवाह होने का प्रतीक समझते हैं। अर्थात ऐसी रेखाएं बेमेल विवाह करवाती हैं। यदि इस प्रकार का कोई योग यदि दिखाई दे तो यह निश्चित है कि ऐसे व्यक्ति का विवाह सामान्य तो नहीं होगा।


खरीदे हैं अगर आपने नया वाहन तो विघ्नविनाशक गणेश का आशीर्वाद लेने जरूर जाएँखरीदे हैं अगर आपने नया वाहन तो विघ्नविनाशक गणेश का आशीर्वाद लेने जरूर जाएँ

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उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर से करीब 6 किलोमीटर दूर ग्राम जवास्या में भगवान गणेश का प्राचीनतम मंदिर स्थित है। इसे चिंतामण गणेश के नाम से जाना जाता है। गर्भगृह में प्रवेश करते ही हमें गौरीसुत गणेश की तीन प्रतिमाएं दिखाई देती हैं। यहां पार्वतीनंदन तीन रूपों में विराजमान हैं। पहला चिंतामण, दूसरा इच्छामन और तीसरा सिद्धिविनायक।

ऐसी मान्यता है कि चिंतामण गणेश चिंता से मुक्ति प्रदान करते हैं, जबकि इच्छामन अपने भक्तों की कामनाएं पूर्ण करते हैं। गणेश का सिद्धिविनायक स्वरूप सिद्धि प्रदान करता है। इस अद्भुत मंदिर की मूर्तियां स्वयंभू हैं। गर्भगृह में प्रवेश करने से पहले जैसे ही आप ऊपर नजर उठाएंगे तो चिंतामण गणेश का एक श्लोक भी लिखा हुआ दिखाई देता है... 
 
कल्याणानां निधये विधये  संकल्पस्य कर्मजातस्य।
निधिपतये गणपतये चिन्तामण्ये नमस्कुर्म:। 
 
चिंतामण गणेश मंदिर परमारकालीन है, जो कि 9वीं से 13वीं शताब्दी का माना जाता है। इस मंदिर के शिखर पर सिंह विराजमान है। वर्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार अहिल्याबाई होलकर के शासनकाल में हुआ। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चिंतामण गणेश सीता द्वारा स्थापित षट् विनायकों में से एक हैं। 
 
जब भगवान श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण के साथ अवंतिका खंड के महाकाल वन में प्रवेश किया था तब अपनी यात्रा की निर्विघ्नता के लिए षट् विनायकों की स्थापना की थी। ऐसी भी मान्यता है कि लंका से लौटते समय भगवान राम, सीता एवं लक्ष्मण यहां रुके थे। यहीं पास में एक बावड़ी भी है जिसे लक्ष्मण बावड़ी के नाम से जाना जाता है। बावड़ी करीब 80 फुट गहरी है। 
 
मंदिर के मुख्य पुजारी पंडित सीताराम ने बताया कि गणेश चतुर्थी, तिल चतुर्थी और प्रत्येक बुधवार को यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ रहती है। चैत्र मास के प्रत्येक बुधवार को यहां मेला भी भरता है। मनोकामना पूर्ण होने पर हजारों श्रद्धालु दूरदराज से पैदल चलकर मंदिर तक पहुंचते हैं। सीताराम पुजारी बताते हैं कि सिंदूर और वर्क से प्रात: गणेशजी का श्रृंगार किया जाता है, जबकि पर्व और उत्सव के दौरान दो बार भी लंबोदर गणेश का श्रृंगार किया जाता है।
 
पुजारी बताते हैं कि मनोकामना पूर्ण करने के लिए श्रद्धालु यहां मन्नत का धागा बांधते हैं और उल्टा स्वस्तिक भी बनाते हैं। मन्नत के लिए दूध, दही, चावल और नारियल में से किसी एक वस्तु को चढ़ाया जाता है और जब वह इच्छा पूर्ण हो जाती है तब उसी वस्तु का यहां दान किया जाता है।

नवविवाहित जोड़ों के साथ ही नए वाहन खरीदने वाले लोग यहां विशेष रूप से विघ्नविनाशक गणेश का आशीर्वाद लेने आते हैं। मंदिर में पीढ़ियों से दो परिवार के पंडित ही पूजा करते आ रहे हैं। वर्तमान में सीताराम पुजारी के अलावा कैलाशचंद्र पुजारी, शंकर पुजारी और मनोहर पुजारी मंदिर में पूजा करते हैं। 

पवित्र तीर्थ स्थलों का जल मिलाया गया है इस मंदिर को बनाने मेंपवित्र तीर्थ स्थलों का जल मिलाया गया है इस मंदिर को बनाने में

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भारत के हर कोने में भगवान गणेश जी के मंदिर हैं और उनके प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है, उज्जैन का बड़ा गणेश मंदिर। यह मंदिर उज्जैन के प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के पास ही है। इस मंदिर में भगवान गणेश को बड़े गणेश के नाम के जाना जाता है। इस मंदिर में भगवान गणेश की एक विशाल मूर्ति है। जिस कारण से इसे बड़े गणेश जी के नाम से पुकारा जाता है। यहां स्थापित गणेश जी की यह प्रतिमा विश्व की सबसे ऊँची और विशाल गणेश जी की मूर्तियों में से एक है।
गुड़ और मेथीदाने से बनी है यहां की गणेश मूर्ति

कहा जाता है कि इस गणेश प्रतिमा की स्थापना महर्षि गुरु महाराज सिद्धांत वागेश पं. नारायणजी व्यास ने करवाई थी। इस मंदिर की भगवान गणेश की प्रतिमा के निर्माण में अनेक प्रकार के प्रयोग किए गए थे। कहते हैं कि इस विशाल गणेश प्रतिमा को सीमेंट से नहीं बनाया गया था। इस मूर्ति की निर्माण ईट, चूने व बालू रेत से किया गया था। इस मूर्ति की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस प्रतिमा को बनाने में गुड़ व मैथीदाने का मसाला भी उपयोग में लाया गया था।
मूर्ति में हैं सभी पावन तीर्थों का जल और मिट्टी

साथ ही इस मूर्ति को बनाने में सभी पवित्र तीर्थ स्थलों का जल मिलाया गया था और सात मोक्षपुरियों मथुरा, माया, अयोध्या, काँची, उज्जैन, काशी व द्वारिका की मिट्टी भी मिलाई गई है, जो की इस मूर्ति को और भी महत्वपूर्ण बनाती है। इस प्रतिमा के निर्माण में लगभग ढाई वर्ष का समय लगा था।

ऐसी है यहां की मूर्ति
यहां की गणेश प्रतिमा लगभग 18 फीट ऊंची और 10 फीट चौड़ी है और इस मूर्ति में भगवान गणेश की सूंड दक्षिणावर्ती है। प्रतिमा के मस्तक पर त्रिशूल और स्वस्तिक बना हुआ है। दाहिनी ओर घूमी हुई सूंड में एक लड्डू दबा है। भगवान गणेश के विशाल कान है, गले में पुष्प माला है। दोनों ऊपरी हाथ जपमुद्रा में व नीचे के दांये हाथ में माला व बांये में लड्डू का थाल है।

इस मंदिर में हैं कई देवी-देवता
इस मंदिर में भगवान गणेश के साथ-साथ कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर में माता यशोदा की गोद में बैठे हुए भगवान कृष्ण की प्रतिमा है और उनके पीछे शेषनाग के ऊपर बांसुरी बजाते हुए कृष्णजी की बहुत ही सुन्दर मूर्ति स्थापित है। मंदिर के बीच में पञ्चमुखी हनुमान चिंतामणि की एक सुंदर प्रतिमा भी है, कहा जाता है इस मूर्ति की स्थापना बड़े गणपति की स्थापना के भी पहले की गई थी। पञ्चमुखी यानी पांच मुखों वाले हनुमान के मुख इस प्रकार हैं: पूर्व में हनुमान मुख है और पश्चिम में नरसिंह मुख, उत्तर में वराह है तो दक्षिण में गरुड़ मुख। पांचवा मुख ऊपर की तरफ है जो कि घोड़े का हयग्रीव अवतार है। हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिए श्री पञ्चमुखी हनुमान की यह प्रतिमा बहुत ही सुंदर है।

जो भी आएगा इस शहर में बिना दर्शन के जा ही नहीं सकता ऐसा है ये मंदिरजो भी आएगा इस शहर में बिना दर्शन के जा ही नहीं सकता ऐसा है ये मंदिर

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दक्षिणेश्वर मंदिर देवी माँ काली के लिए ही बनाया गया है। दक्षिणेश्वर माँ काली का मुख्य मंदिर है। भीतरी भाग में चाँदी से बनाए गए कमल के फूल जिसकी हजार पंखुड़ियाँ हैं, पर माँ काली शस्त्रों सहित भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई हैं। काली माँ का मंदिर नवरत्न की तरह निर्मित है और यह 46 फुट चौड़ा तथा 100 फुट ऊँचा है। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास दक्षिणेश्वर काली मंदिर स्थित है। यह मंदिर बीबीडी बाग से 20 किलोमीटर दूर है। 

दक्षिणेश्वर काली मंदिर - जहां हुए रामकृष्ण परमहंस
समूचा विश्व इन्हे स्वामी विवेकानन्द के गुरू के रूप में मानता है। कोलकाता में उनकी आराधना का स्थल आज भी लोगों के लिये श्रद्धा का केन्द्र है। 

दक्षिणेश्वर मन्दिर के बारे में बता रही हैं कामाक्षी:
कोलकाता में हुगली के पूर्वी तट पर स्थित मां काली व शिव का प्रसिद्ध मन्दिर है दक्षिणेश्वर। कोलकाता आने वाले प्रत्येक सैलानी की इच्छा यहां दर्शन करने की अवश्य होती है। यह मन्दिर लगभग बीस एकड में फैला है। वास्तव में यह मन्दिरों का समूह है, जिनमें प्रमुख हैं- काली मां का मन्दिर, जिसे भवतारिणी भी कहते हैं। मन्दिर में स्थापित मां काली की प्रतिमा की आराधना करते-करते रामकृष्ण ने ‘परमहंस’ अवस्था प्राप्त कर ली थी। इसी प्रतिमा में उन्होंने मां के स्वरूप का साक्षात्कार कर, जीवन धन्य कर लिया था। पर्यटक भी इस मन्दिर में दर्शन कर मां काली व परमहंस की अलौकिक ऊर्जा व तेज को महसूस करने का प्रयास करते हैं।

इस मन्दिर का निर्माण कोलकाता के एक जमींदार राजचन्द्र दास की पत्नी रासमणी ने कराया था। सन 1847 से 1855 तक लगभग आठ वर्षों का समय और नौ लाख रुपये की लागत इसके निर्माण में आई थी। तब इसे ‘भवतारिणी मन्दिर’ कहा गया गया। परंतु अब तो यह दक्षिणेश्वर के नाम से ही प्रसिद्ध है। दक्षिणेश्वर अर्थात दक्षिण भाग में स्थित देवालय। प्राचीन शोणितपुर गांव अविभाजित बंगाल के दक्षिण भाग में स्थित है। यहां के प्राचीन शिव मन्दिर को लोगों ने दक्षिणेश्वर शिव मन्दिर कहना शुरू किया और कालांतर में यह स्थान ही दक्षिणेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज यह केवल बंगाल या भारत ही नहीं, सम्पूर्ण हिन्दु मतावलम्बियों के लिये एक पुनीत तीर्थ स्थल है।

मन्दिर परिसर में प्रवेश करते ही लगभग सौ फुट ऊंचे शिखर को देखकर ही अनुमान लग जाता है कि यही मुख्य मन्दिर है। इसकी छत पर नौ शिखर हैं, जिनके बीचोंबीच का शिखर सबसे ऊंचा है। इसी के नीचे बीस फुट वर्गाकार में गर्भगृह है। अन्दर मुख्य वेदी पर सुन्दर सहस्त्रदल कमल है, जिस पर भगवान शिव की लेटी हुई अवस्था में, सफेद संगमरमर की प्रतिमा है। इनके वक्षस्थल पर एक पांव रखे कालिका का चतुर्भुज विग्रह है। गले में नरमुंडों का हार पहने, लाल जिह्वा बाहर निकाले और मस्तक पर भृकुटियों का मध्य ज्ञान नेत्र। प्रथम दृष्टि में तो यह रूप अत्यन्त भयंकर लगता है। पर भक्तों के लिये तो यह अभयमुद्रा वरमुद्रा वाली, करुणामयी मां है।

काली मन्दिर के उत्तर में राधाकान्त मन्दिर है, इसे विष्णु मन्दिर भी कहते हैं। इस मन्दिर पर कोई शिखर नहीं है। मन्दिर के गर्भ गृह में कृष्ण भगवान की प्रतिमा है। श्यामवर्णी इस प्रतिमा के निकट ही चांदी के सिंहासन पर अष्टधातु की बनी राधारानी की सुन्दर प्रतिमा है। राधाकृष्ण के इस रूप को यहां जगमोहन-जगमोहिनी कहते हैं। काली मन्दिर के दक्षिणी ओर ‘नट-मन्दिर’ है। इस पर भी कोई शिखर नहीं है। भवन के चारों ओर द्वार बने हैं। मन्दिर की छत के मध्य में माला जपते हुए भैरव हैं। नट मन्दिर के पीछे की ओर भंडारगृह व पाकशाला है। दक्षिणेश्वर के प्रांगण के पश्चिम में एक कतार में बने बारह शिव मन्दिर हैं। यह देखने में कुछ अलग से कुछ विशिष्ट से लगते हैं क्योंकि इन मन्दिरों का वास्तु शिल्प बंगाल प्रान्त में बनने वाली झोंपडियों सरीखा है। वैसे ही धनुषाकार गुम्बद इनके ऊपर बने हैं। सभी मन्दिर एक आकार के हैं। इनके दोनों ओर चौडी सीढियां बनी हैं। इन सभी में अलग-अलग पूजा होती है।

 इनके नाम हैं- योगेश्व्वर, यत्नेश्वर, जटिलेश्वर, नकुलेश्वर, नाकेश्वर, निर्जरेश्वर, नरेश्वर, नंदीश्वर, नागेश्वर, जगदीश्वर, जलेश्वर और यज्ञेश्वर। मन्दिरों के मध्य भाग में स्थित चांदनी ड्योढी से एक रास्ता हुगली घाट की ओर जाता है। जहां से हुगली का विस्तार देखते ही बनता है। मन्दिर प्रांगण के बाहर भी महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक दर्शनीय स्थान हैं जहां पर्यटक अवश्य ही जाते हैं। उत्तर की ओर बकुल तला घाट के निकट ‘पंचवटी’ नामक स्थान है। उस समय यहां बरगद, पीपल, बेल, आंवला और अशोक पांच पेड थे। परमहंस अक्सर यहां आते थे और यहां के सुरम्य वातावरण में वे समाधिस्थ हो जाया करते थे।

प्रांगण के सामने ही एक कोठी है जिसमें परमहंस रामकृष्ण निवास करते थे। यहीं पर उन्होनें अनेक वर्षों तक साधना की। उन्होंने वैष्णव, अद्वैत और तान्त्रिक मतों के अतिरिक्त इस्लाम व ईसाई मत का भी गहन अध्ययन किया और ईश्वर सर्वतोभाव की खोज की। कोठी के पश्चिम में नौबतखाना है। जहां रामकृष्ण की माता देवी चन्द्रामणी निवास करती थी। बाद के दिनों में मां शारदा ( परमहंस की अर्धांगिनी) भी वहीं रहने लगीं। कुछ वर्षों बाद रामकृष्ण, प्रांगण के उत्तरपूर्व में बने एक कमरे में रहने लगे थे जहां वे अंतकाल तक रहे। अब यहां एक लघु संग्रहालय है। यहीं दक्षिणेश्वर में एक युवक उनसे मिला था और उनके प्रभाव से, संसार को राह दिखाने विवेकानंद बन गया।

सामने ही हुगली के पश्चिमी तट पर ‘वेलूर मठ’ है। जहां रामकृष्ण मिशन का कार्यालय है। स्वामी विवेकानंद के बाद भी दक्षिणेश्वर में संत महात्माओं का आना जाना चलता रहा और यह स्थान अध्यात्म व भक्ति का प्रमुख केन्द्र बन गया।

पुत्र कामना और पति की दीर्घ आयु के लिए काफी मान्यता है इस मंदिर कीपुत्र कामना और पति की दीर्घ आयु के लिए काफी मान्यता है इस मंदिर की

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हिन्दू धर्मग्रंथों में कृष्णपक्ष की चंद्रोदय-व्यापिनी चतुर्थी को ‘संकष्टी गणेश चतुर्थी’ के व्रत का विधान निर्दिष्ट है. ऐसी मान्यता है कि इन चतुर्थियों के दिन उपवास रखकर गणोशजी का पूजन तथा रात्रि में चंद्रोदय हो जाने पर चंद्रमा को अर्घ्य देने के उपरांत व्रत का पारण करने से सब संकट दूर होते हैं. श्रीगणोश को ‘विघ्नेश्वर’ कहा जाता है. प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में गणोशजी का स्मरण उसके निर्विघ्न संपन्न होने के उद्देश्य से किया जाता है. श्रीगणोश की पूजा से समस्त देवगणों का पूजन स्वत: हो जाता है, क्योंकि ये ‘गणपति’ कहलाते हैं. शिवपुराण के अनुसार, पार्वती-पुत्र गणोशजी की उत्पत्ति उमा की देह में लगे उबटन से हुई थी.

जबकि ब्रह्मवैवर्तपुराण के कथनानुसार, माता पार्वती को गणेशजी पुत्र के रूप में पुण्यक-व्रत के फलस्वरूप प्राप्त हुए थे. मान्यता जो भी हो, लेकिन पौराणिक ग्रंथ गणपति को प्रणव-स्वरूप बताते हैं अर्थात शिव-पार्वती का पुत्र बनने से पूर्व श्रीगणेश निराकार प्रणव (ॐ) के रूप में थे. शंकर के पुत्र के रूप में उनका गजमुख साकार हुआ.

पुत्र कामना और पति की दीर्घ आयु के लिए व्रत
‘संकष्टी गणेश चतुर्थी’ के दिन पुत्र कामना और पति की दीर्घ आयु के लिए महिलायें व्रत करती हैं. चन्द्रोदय के बाद चन्द्र विम्ब में भगवान गणोश के निमित्त अर्घ्य अर्पित कर व्रती महिलायें व्रत का पारण करती हैं.

धर्म की नगरी काशी के लोहटिया स्थित अति प्राचीन बड़ा गणेश मंदिर में हजारो गणेश भक्तों का हुजूम तड़के सुबह से ही उमड़ पड़ा. माना जाता है कि अपने आप में पूरे देश में यह अनूठा मंदिर है, जहा विघ्नहर्ता अपने विशाल रूप में त्रिनेत्रधारी रूप में विराजमान हैं.

बल, बुद्धि और विद्या के देवता गणेश जी के दर्शन के लिए भक्तो का ताता लगा रहा. भक्तों को पूरा विश्वास है कि आज के पावन दिन गणपति के दर्शन मात्र से उनके परिवार पर विघ्नहर्ता पूरे वर्ष अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखेंगे.

भोले की नगरी काशी में शिव पुत्र गणेश जी की महत्ता अन्य तीर्थो और स्थानों से कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है. यही वजह है कि ‘संकष्टी गणेश चतुर्थी’ के दिन हर-हर महादेव से गुन्जायमान रहने वाली काशी नगरी जय गणेश देवा के उद्गोष के साथ पूरे दिन गूंजती रही.

यह चमत्कारी शिव मंदिर जो स्थापित है महाभारतकालीन समय सेयह चमत्कारी शिव मंदिर जो स्थापित है महाभारतकालीन समय से

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कानपुर देहात में एक छोटा-सा गांव है बनीपारा। इसी गांव में एक चमत्कारी शिव मंदिर है, जिसे बाणेश्वर के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि यह मंदिर महाभारतकालीन है। इस मंदिर से जुड़ी कई रोचक जानकारियां हैं, जो श्रद्धालुओं को दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर करती हैं।

मंदिर के पुजारी व समाजसेवी चतुर्भुज त्रिपाठी का कहना है कि यह मंदिर महाभारत काल से इस गांव में है और प्रलय काल तक रहेगा। राजा बाणेश्वर की बेटी ऊषा भगवान शिव की अनन्य भक्त थी। उनकी पूजा करने वह इतनी तल्लीन हो जाती थी कि अपना सब कुछ भूलकर आधी-आधी रात तक दासियों के साथ शिव का जाप करती थी। बेटी की भक्ति को देखकर राजा शिवलिंग को महल में ही लाना चाहते थे ताकि उनकी बेटी को जगंल में न जाना पड़े और उसकी पूजा आराधना महल में ही चलती रहे। राजा बाणेश्वर ने इसके लिए घोर तपस्या की।
 
कई वर्षों के बाद राजा की तपस्या से प्रसन्न होकर भोलेशंकर ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। उनकी बात सुनकर राजा ने उनसे अपने महल में ही प्रतिष्ठित होने की प्रार्थना की। भगवान ने उनकी इस इच्छा को पूर्ण करते हुए अपना एक लिंग स्वरूप उन्हें दिया, किन्तु शर्त रखी कि जिस जगह वह इस शिवलिंग को रखेंगे, वह उसी जगह स्थापित हो जाएगा। 
 
शिवलिंग पाकर प्रसन्न राजा बाणेश्वर तुरंत अपने राजमहल की ओर चल पड़े। रास्ते में ही राजा को लघुशंका के लिए रुकना पड़ा। उन्हें जंगल में एक आदमी आता दिखाई दिया। राजा ने उसे शिवलिंग पकड़ने के लिए कहा और जमीन पर न रखने की बात कहीं।
 
उस आदमी ने शिवलिंग पकड़ तो लिया, लेकिन वह इतना भारी हो गया कि उसे शिवलिंग को जमीन पर रखना पड़ा। जब राजा बाणेश्वर वहां पहुंचे तो नजारा देख हैरान रह गए। उन्होंने शिवलिंग को कई बार उठाने की कोशिश की, लेकिन वह अपनी जगह से नहीं हिला। अंततः राजा को हार माननी पड़ी और वहीं पर मंदिर का निर्माण कराना पड़ा, जो आज भी बाणेश्वर के नाम से मशहूर है।

भगवान त्रिनेत्र गणेश करेंगे आपकी सभी मनोकामनाएं पूरीभगवान त्रिनेत्र गणेश करेंगे आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी

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हमारे देश में भगवान श्री गणेश के मन्दिरों की समृद्ध शृंखला में रणथंभौर दुर्ग के भीतर भव्य त्रिनेत्र गणेश मन्दिर का महत्व न केवल राजस्थानवासियों के लिये हैं बल्कि सम्पूर्ण देश में यह मन्दिर चर्चित एवं लोकप्रिय है। सवाई माधोपुर जिला मुख्यालय से 13 किलोमीटर दूर रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के भीतर विश्व ऐतिहासिक विरासत में शामिल रणथंभोर दुर्ग में भगवान गणेश का यह मंदिर स्थित है । इस मंदिर में जाने के लिए लगभग 1579 फीट ऊँचाई पर भगवान गणेश के दर्शन हेतु जाना पड़ता है । यह मंदिर विदेशी पर्यटकों के बीच भी आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। ऐतिहासिक एवं प्राचीन काल का होने के कारण इस मंदिर की बड़ी मान्यता है। आस्था और चमत्कार की ढेरों कहानियां खुद में समेटे यह मन्दिर प्रकृति एवं प्राचीनता का भी अद्भुत संगम है।

अरावली और विन्ध्याचल पहाडि़यों के मनोरम परिवेश एवं प्रकृति की गोद में बने इस मन्दिर तक पहुंचने के लिये भक्तों को रणथम्भौर दुर्ग के भीतर कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद त्रिनेत्र गणेशजी के दर्शन होते हैं तो हृदय में श्रद्धा और आस्था का अगाध सागर उमड़ आता है, श्रद्धालु अपनी थकान त्रिनेत्र गणेशजी की मात्र एक झलक पाकर ही भूल जाते हैं।

भारत के कोने-कोने से लाखों की तादाद में दर्शनार्थी यहाँ पर भगवान त्रिनेत्र गणेशजी के दर्शन हेतु आते हैं और कई मनौतियां माँगते हैं, जिन्हें भगवान त्रिनेत्र गणेश पूरी करते हैं। भगवान गणेश शिक्षा, ज्ञान, बुद्धि, सौभाग्य और धन के देवता हैं। श्री गणेश सभी दु:ख, पीड़ा, अशुभता और कठिनाइयों को हर लेते हैं। जो भी यहाँ सच्ची आस्था और भक्ति के साथ आता है और सच्चे मन से कोई भी मनौती करता है तो उसकी हर मनोकामना पूरी करते हुए गणेशजी उसको ज्ञान, सौभाग्य और समृद्धि प्रदान करते हैं। मनोकामना करने वाले हर व्यक्ति की चाहे विवाह की कामना हो, व्यापार में उन्नति की कामना हो, ऊंच्चे अंकों से परीक्षा पास करने की कामना हो, ऐसी हर कामना को त्रिनेत्र गणेशजी पूरी करते हैं। न केवल राजस्थान बल्कि देश के सुदूर क्षेत्रों के श्रद्धालु लोग अपने घरों में होने वाले हर मांगलिक कार्य और विशेषत: विवाह का पहला निमंत्रण त्रिनेत्र गणेशजी को ही प्रेषित करते हैं। यहां विवाह के दिनों में हजारों वैवाहिक निमंत्रण त्रिनेत्र गणेशजी के नाम से पहुंचते हैं।

त्रिनेत्र गणेश मन्दिर से जुड़ी तमाम ऐतिहासिक एवं धार्मिक किंवदतियां भी है। इस गणेश मंदिर का निर्माण महाराजा हमीरदेव चैहान ने करवाया था लेकिन मंदिर के अंदर भगवान गणेश की प्रतिमा स्वयंभू है। राजा हमीर और अल्लाउद्दीन खिलजी के बीच में सन् 1299 से युद्ध अनेक वर्षों तक चला। इस युद्ध के दौरान राजा हमीर के स्वप्न मे भगवान गणेश ने उन्हें आश्वासन दिया कि उनकी विपत्ति जल्द ही दूर हो जाएगी। उसी सुबह किले की एक दीवार पर तिनेत्र गणेशजी की मूर्ति अंकित हो गयी। जल्द ही युद्ध समाप्त हो गया । राजा हमीरदेव ने गणेश द्वारा इंगित स्थान पर मूर्ति की पूजा की। किंवदंती के अनुसार भगवान राम ने जिस स्वयंभू मूर्ति की पूजा की थी उसी मूर्ति को हमीरदेव ने यहाँ पर प्रकट किया और गणेशजी का मन्दिर बनवाया। इस मंदिर में भगवान गणेश त्रिनेत्र रूप में विराजमान है जिसमें तीसरा नेत्र ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। पूरी दुनिया में यह एक ही मंदिर है जहाँ भगवान गणेशजी अपने पूर्ण परिवार, दो पत्नी- रिद्दि और सिद्दि एवं दो पुत्र- शुभ और लाभ, के साथ विराजमान है। भारत में चार स्वयंभू गणेश मंदिर माने जाते हंै, जिनमें रणथम्भौर स्थित त्रिनेत्र गणेशजी प्रथम है। इस मंदिर के अलावा सिद्दपुर गणेश मंदिर गुजरात, अवंतिका गणेश मंदिर उज्जैन एवं सिहोर मंदिर मध्यप्रदेश में स्थित है।

यह भी कहा जाता है कि भगवान राम ने लंका कूच करते समय इसी गणेश का अभिषेक कर पूजन किया था। अत: त्रेतायुग में यह प्रतिमा रणथम्भौर में स्वयंभू रूप में स्थापित हुई और लुप्त हो गई।

एक और मान्यता के अनुसार जब द्वापर युग में भगवान कृष्ण का विवाह रूकमणी से हुआ था तब भगवान श्रीकृष्ण गलती से गणेशजी को बुलाना भूल गए जिससे भगवान गणेश नाराज हो गए और अपने मूषकों को आदेश दिया की विशाल चूहों की सेना के साथ जाओ और श्रीकृष्ण के रथ के आगे सम्पूर्ण धरती में बिल खोद डालो। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण का रथ धरती में धँस गया और आगे नहीं बढ़ पाये। मूषकों के बताने पर भगवान श्रीकृष्ण को अपनी गलती का अहसास हुआ और रणथम्भौर स्थित जगह पर गणेश को लेने वापस आए, तब जाकर श्रीकृष्ण का विवाह सम्पन्न हुआ। तब से भगवान गणेश को विवाह व मांगलिक कार्यों में प्रथम आमंत्रित किया जाता है। यही कारण है कि रणथम्भौर गणेश को भारत का प्रथम गणेश कहते है।

रणथम्भौर स्थित त्रिनेत्र गणेशजी दुनिया के एक मात्र गणेश है जो तीसरा नयन धारण करते हैं । गजवंदनम् चितयम् में विनायक के तीसरे नेत्र का वर्णन किया गया है, लोक मान्यता है कि भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र उत्तराधिकारी स्वरूप अपने पुत्र गणेश को सौंप दिया था और इस तरह महादेव की सारी शक्तियाँ गजानन में निहित हो गई। महागणपति षोड्श स्त्रौतमाला में विनायक के सौलह विग्रह स्वरूपों का वर्णन है। महागणपति अत्यंत विशिष्ट व भव्य है जो त्रिनेत्र धारण करते हंै, इस प्रकार ये माना जाता है कि रणथम्भौर के त्रिनेत्र गणेशजी महागणपति का ही स्वरूप है।

हाल ही में रणथम्भौर की यात्रा के दौरान मन्दिर के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुख्य पूजारीजी से अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त हुई। उन्होंने ही बताया कि भगवान त्रिनेत्र गणेश का शृंगार भी विशिष्ट प्रकार से किया जाता है। भगवान गणेश का शृंगार सामान्य दिनों में चाँदी के वरक से किया जाता है, लेकिन गणेश चतुर्थी पर भगवान का शृंगार स्वर्ण के वरक से होता है, यह वरक मुम्बई से मंगवाया जाता है। कई घंटे तक विधि-विधान से भगवान का अभिषेक किया जाता हैं। प्रतिदिन मंदिर में पुजारी द्वारा विधिवत पूजा की जाती है। भगवान त्रिनेत्र गणेश की प्रतिदिन पांच आरतियां की जाती है। गणेश चतुर्थी पर यहां भव्य मेला लगता है।

गरीब से धनवान बनना है तो अपनाओ भगवान कृष्ण के ये मंत्रगरीब से धनवान बनना है तो अपनाओ भगवान कृष्ण के ये मंत्र

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श्री कृष्णा भगवान विष्णु जी के आठवे अवतार कहलाते है। उनके भक्तो की संख्या करोडो में है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु के सिर्फ दो ही अवतार थे जो की पूरी दुनिया में प्रसिध्द है, जो की यह थे - सातवें अवतार श्री राम व आठवें श्री कृष्ण।  इनके अलावा भगवान विष्णु के अन्य अवतारों को सिर्फ वे ही जानते है जिनके पास हिन्दू धर्म के धर्मिक गर्न्थो का ज्ञान हो। लेकिन क्या आप जानते है कि आखिर क्या कारण है की भगवान श्री कृष्ण और श्री राम के देश-विदेशो में अनेक भक्त फैले हुए है ? कारण तो बहुत सारे है लेकिन जो मुख्य कारण है वह है दोनों के द्वारा दिए गए जीवन उपयोगी संदेश जो भक्तो के जीवन में मार्गदर्शक का कार्य करते है। इसके साथ ही श्री राम और श्री कृष्ण का जीवन ही एक बड़ी मिसाल है जिनके उपदेश भक्तो के लिए संदेश का काम करते है. सिर्फ उनके जीवन से जुड़े उपदेश ही नहीं बल्कि उनसे जुड़े मन्त्र भी उनके भक्तो के जीवन को सुखी और सम्पूर्ण बना सकते है। इसलिए आज हम आपको भगवान श्री कृष्ण से संबंधित कुछ ऐसे मंत्रो के बारे में बताने जा रहे है जिनसे भक्त अपने जिंदगी में सुख-समृद्धि और ऐशवर्य प्राप्त कर सकता है. यह मन्त्र काफी सरल है, लेकिन फिर भी ध्यान रहे की इनका उच्चारण सही प्रकार से हो -

1 . ”कृं कृष्णाय नमः” - इस मन्त्र के उच्चारण करने से मनुष्य को उसके अटके धन की प्राप्ति होती है तथा घर-परिवार में सुख सम्पति की वर्षा होती है.

2 .”ऊं श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा ” - भगवान श्री कृष्ण का यह मन्त्र साधारण नहीं है, यह सप्तदशाक्षर महामंत्र है. अन्य मन्त्र 108 बार जप करने से सिद्ध हो जाते है परन्तु इस मन्त्र का जाप एक लाख बार करने से सिद्ध होता है.

3 . ”गोल्ल्भय स्वाहा” - यह मन्त्र दिखने में तो सिर्फ दो अक्षर के लग रहे है परन्तु इन मंत्रो में सात शब्दों का प्रयोग किया गया है. यदि इस मन्त्र के उच्चारण में थोड़ी सी भी चूक हो जाए तो यह मन्त्र सिद्ध नहीं होता है.

4 . ”गोकुल नाथाय नम:" - इस आठ अक्षरों वाले श्रीकृष्णमंत्र का जो भी साधक जाप करता है उसकी सभी इच्छाएं व अभिलाषाएं पूर्ण होती हैं. जी हां… अब वह इच्छा धन से संबंधित हो, भौतिक सुखों से संबंधित हो या किसी भी निजी कामना को पूरा करने के लिए हो. इस मंत्र का सही उच्चारण करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

5 “क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलांगाय नमः” - आर्थिक स्थित को सुधारने वाले इस मन्त्र का उच्चारण प्रातः काल के समय करना उत्तम होता है. यह मंत्र न केवल धन की वर्षा करता है बल्कि परिवार में आये हर कष्ट को भी दूर कर देता है. यह मन्त्र बहुत ही शक्तिशाली माना गया है.

6 . ”ॐ नमः भगवते श्रीगोविन्दाय ” - अभी तक हमने जितने भी मंत्रो का वर्णन किया है वे सभी घर में धन वृद्धि करते है और सुख सम्पति लाते है. परन्तु यह मन्त्र विवाह से संबंधित है. जिस किसी भी व्यक्ति का विवाह नहीं हो रहा या कोई व्यक्ति लव विवाह करना चाहता हो उसका इस मन्त्र की सिद्धि द्वारा विवाह हो जाता है. जो व्यक्ति विवाह इच्छुक हो तो उसे प्रातः उठकर स्नान आदि कर इस मन्त्र का 108 बार जाप करना चाहिए.

7 . ”ऐं क्लीं कृष्णाय ह्रीं गोविंदाय श्रीं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ह्र्सो” - इस मन्त्र को उच्चारण करने में थोड़ी कठिनता महसूस होती है, परन्तु यह मन्त्र उतना ही प्रभावशाली है तथा व्यक्ति के वाणी में मधुरता लाती है. यहाँ वाणी से अभिप्राय व्यक्ति के न बोल पाने या गूंगे से नहीं है.. यह मन्त्र ऐसी शक्ति प्रदान करता है की जिससे व्यक्ति की वाणी क्षमता मजबूत होती है तथा उस की बोली ही बाते सिद्ध होने लगती है.

8 .“ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीकृष्णाय गोविंदाय गोपीजन वल्लभाय श्रीं श्रीं श्री” - यह 23 अक्षरों का बहुत ही प्रभावशाली मन्त्र है जिसके जाप से व्यक्ति की हर प्रकार की बाधा का अंत होता है तथा व्यक्ति की घर में धन-दौलत की वर्षा होती है. ऐसी मान्यता है की इस 23 अक्षर के मंत्र का नित्य जाप करने से व्यक्ति के जीवन में कभी भी धन की कमी नहीं आती तथा मनुष्य सदैव वैभव-सम्पन्न बना रहता है.

9 . “ॐ नमो भगवते नन्दपुत्राय आनन्दवपुषे गोपीजनवल्लभाय स्वाहा” - यह श्रीकृष्ण का 28 अक्षरों वाला मंत्र है, जिसका जाप करने से मनोवांछित फल प्राप्ति होते हैं. जो भी साधक इस मंत्र का जाप करता है उसको समस्त अभीष्ट वांछित वस्तुएं प्राप्त होती हैं.

10 .“लीलादंड गोपीजनसंसक्तदोर्दण्ड बालरूप मेघश्याम भगवन विष्णो स्वाहा” - श्री कृष्ण के इस 29 अक्षर के मंत्रो के जाप को साधक यदि एक लाख बार जप के साथ शक़्कर , घी के साथ हवन करें तो वह स्थायी लक्ष्मी पा सकता है।

11 “नन्दपुत्राय श्यामलांगाय बालवपुषे कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा” - श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया यह मंत्र 32 अक्षरों वाला है. इस मंत्र के जाप से समस्त आर्थिक मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. यदि आप किसी आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं तो सुबह स्नान के बाद कम से कम एक लाख बार इस मंत्र का जाप करें. आपको जल्द ही सुधार देखने को मिलेगा।

ये चीजें दिलाएंगी आपके घर में हो रही परेशानी से छुटकारा

यह व्रत करने व कथा सुनने से निर्धन को धन और बांझ स्त्रियों को होगी पुत्र की प्राप्ति


गणेश चतुर्थी स्पेशल: विश्व का एकमात्र मानव मुखी गणेश मंदिरगणेश चतुर्थी स्पेशल: विश्व का एकमात्र मानव मुखी गणेश मंदिर

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सभी लोग अच्छे से जानते है की गणेश जी का मुख हाथी के मुख के समान है लेकिन क्या आप जानते है की विश्व में एक ऐसा भी मंदिर है जहाँ गणेश जी का मुख मानव मुख के समान है , लेकिन गणेश भगवान की पूजा उनके मूल मुख (हाथी मुख के पूर्व वाले मुख) के रूप में की जाती है। जी यह प्राचीन “स्वर्णवल्ली मुक्तीश्वर मंदिर” तमिलनाडु के तिरुवरुर जिले Mayavaram – Tiruvarur Road पर Poonthottam के निकट Koothanur से 2.6 कि मी Thilatharpanapuri थिलान्थरपानपुरी में है. भगवान गणेश को यहाँ नर-मुख विनायकर कहा जाता है . ऐसी भी प्रतिमा है जिसमे गणेश जी का मुख मानव मुख के समान है।

कहां है भगवान गणेश का असली मुख - गणेश जी के हर नाम में गज का जिक्र आता है. दरअसल भगवान गणेश का मुख हाथी का है इसलिये उन्हें इन नामों से पुकारा जाता है, यह तो आप भी जानते ही होंगे और आप यह भी जानते हैं कि कैसे उन्हें यह हाथी का मुख लगा है लेकिन उनका असली मुख कहां गया क्या आप जानते हैं. आइए हम आपको बताते है - इसके पीछे 2 पौराणिक कथाए है।

शनि के दृष्टिपात से हुआ श्री गणेश का सिर धड़ से अलग - पौराणिक ग्रंथों में भगवान गणेश के जन्म लेने की जो कहानियां मिलती हैं उनमें से एक के अनुसार जब भगवान गणेश को माता पार्वती ने जन्म दिया तो उनके दर्शन करने के लिये स्वर्गलोक के समस्त देवी-देवता उनके यहां पंहुचे. तमाम देवताओं के साथ शनिदेव भी वहां पंहुचे। हुआ यूँ कि भगवान शनिदेव को उनकी पत्नी ने श्राप दे रखा था कि जिस पर भी उनकी नजर पड़ेगी उसे हानि जरुर पंहुचेगी। इसलिये भगवान शनिदेव भी अपनी दृष्टि टेढ़ी रखते हैं ताकि किसी का अहित न हो। लेकिन माता पार्वती को भगवान शनि का इस तरह देखना अच्छा नहीं लगा और उनसे कहा कि क्या आप हमारे यहां संतानोत्पति से खुश नहीं हैं जो ऐसे नजरें चुरा रहे हैं।

शनिदेव पर काफी दबाव उन्होंने डाला तो शनिदेव को मजबूरन अपनी दृष्टि नवजात शिशु यानि श्री गणेश पर डालनी पड़ी जैसे ही बालक गणेश पर उनकी नजर पड़ी उनका मुख धड़ से अलग हो गया और वह आकाश में स्थित चंद्रमंडल में पंहुच गया, शनिदेव के इस कृत्य से घर में हाहाकार मच गया, माता पार्वती तो बेसुध हो गई। तभी इस स्थिति का समाधान निकल कर आया कि जिस का भी मुख पहले मिले वही लगा दें तो बालक जीवित हो जायेगा. तभी भगवान शिव ने हाथी का मुख भगवान गणेश को लगा दिया. इस प्रकार माना जाता है कि भगवान गणेश का असली मुख आज भी चंद्रमंडल में विद्यमान है।

भगवान शिव को गणेश जी ने रोका तो उनका सर अलग कर दिया - एक अन्य कथा के अनुसार माता पार्वती ने अपने मैल से श्री गणेश की रचना की और उन्हें अपना द्वारपाल नियुक्त कर दिया और आदेश दिया कि जब तक वे स्नान कर रही हैं किसी को भी अंदर न आने दें. माता पार्वती स्नान कर ही रही थी कि वहां भगवान शिव का आना हुआ। भगवान गणेश ने उनका रास्ता रोक लिया और अंदर जाने की अनुमति नहीं दी. भगवान शिव इससे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने भगवान गणेश के सर को धड़ से अलग कर दिया। जब माता पार्वती को पता चला तो वे भी क्रोधित हुई और विलाप करने लगी तब भगवान शिव ने माता पार्वती को मनाने के लिये हाथी का मस्तक लगाकर श्री गणेश को जीवित कर दिया और वरदान दिया कि सभी देवताओं में सबसे पहले गणेश की पूजा की जायेगी. इस कहानी के अनुसार भी उनका शीश धड़ से अलग होकर चंद्र लोक में पंहुच गया।

पाताल भुवनेश्वर गुफा मंदिर में है आदि गणेश - एक मान्यता यह भी है कि भगवान गणेश का मस्तक धड़ से अलग करने के बाद जब माता पावर्ती रुष्ट हो गई और अपने पुत्र के जीवित न होने पर प्रलय आने की कही तो सभी देवता सहम गये तब भगवान शिव ने कहा कि जो शीश कट गया है वह दोबारा नहीं लगाया जा सकता तो शिवगण हाथी के बच्चे का मस्तक काट कर ले आये जिसे भगवान शिव ने श्री गणेश के धड़ पर लगाकर उन्हें फिर से जीवित कर दिया. मान्यता है भगवान शिव ने श्री गणेश के धड़ से अलग हुए मुख को एक गुफा में रख दिया. इस गुफा को वर्तमान में पातालभुवनेश्वर गुफा मंदिर के नाम से जाना जाता है यहां मौजूद भगवान गणेश की मूर्ति को आदिगणेश कहा जाता है.

पुत्र कामना और पति की दीर्घ आयु के लिए काफी मान्यता है इस मंदिर की

 

घर-घर साजे, श्री महालक्ष्मी विराजेघर-घर साजे, श्री महालक्ष्मी विराजे

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भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को महाराष्ट्रीय परिवारों में ज्येष्ठा गौर आह्वान का तीन दिवसीय पर्व मनाया जाता है। इस पर्व की शुरूआत आज से हुई है। इस पर्व में ज्येष्ठा गौरी अर्थात् देवी श्री महालक्ष्मी का आह्वान कर उन्हें गाजे - बाजे , ढोल , ढमाके के साथ विराजित किया जाता है। आज ऐसे परिवारों में श्री महालक्ष्मी विराजित की गईं। इस दौरान परिवार में आनंद का वातावरण रहा।

देवी श्री महालक्ष्मी को पुरन पोळी का भोग लगाया जाता है। इतना ही नहीं उनके सम्मान में गुजिया, साटोरी आदि का नैवेद्य अर्थात भोग समर्पित किया जाता है।

देवी महालक्ष्मी को दूसरे दिन सोहल पकवान का भोग लगाया जाता है और उनका श्रृंगार सौलह भी किया जाता है। तीसरे दिन देवी महालक्ष्मी का विधिवत विसर्जन होता है। इसके पूर्व दूसरे दिन सुहागन जिमाई जाती है।

रहस्य पर से उठ चुका है पर्दा आखिर जान चुके हैं क्या होती है मृत्युरहस्य पर से उठ चुका है पर्दा आखिर जान चुके हैं क्या होती है मृत्यु

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आखिर मृत्यु है क्या मृत्यु के विषय में दुनियाभर में अलग-अलग तरह की बातें और मान्यताएं प्रचलित हैं। इस तरह कि मान्यताओं व धारणाओं में से अधिकांश काल्पनिक, मनगढ़ंत एवं झूटी होती हैं, लेकिन समय-समय पर दुनिया में ऐसे भी तत्वज्ञानियों एवं योगियों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने जीवन काल में ही इस महत्वपूर्ण गुत्थी को सुलझाया है।

जीवन का न तो कभी प्रांरभ होता है और न ही कभी अंत। लोग जिसे मृत्यु कहते हैं वह मात्र उस शरीर का अंत है जो प्रकृति के पांच तत्वों (पृथ्वी,जल, वायु,अग्री और आकाश) से मिलकर बना है। इस सच से हम सभी परिचित हैं, लेकिन मृत्यु के पश्चात जब शव को अंतिम विदाई दे दी जाती है तो ऐसे में आत्मा का क्या होता है यह अभी तक एक रहस्य ही बना हुआ है। पाप-पुण्य के होते हैं हिसाब गरुड़ पुराण के अनुसार जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो उसे दो यमदूत लेने आते हैं। 

मानव अपने जीवन में जैसा कर्म करता है यमदूत उसे उसके अनुसार अपने साथ ले जाते हैं। अगर मरने वाला सज्जन है या फिर पुण्यात्मा है तो उसके प्राण निकलने में कोई पीड़ा नहीं होती है, लेकिन वह दुराचारी या पापी हो तो उसे प्राण निकलने वक्त पीड़ा सहनी पड़ती है। पुराण में यह भी उल्लेख मिलता है कि मृत्यु के बाद आत्मा को यमदूत केवल 24 घंटों के लिए ही ले जाते हैं और इस दौरान आत्मा को दिखाया जाता है कि उसने कितने पाप और कितने पुण्य किए हैं। 

इसके बाद आत्मा को फिर उसी घर में छोड़ दिया जाता है जहां उसने शरीर का त्याग किया था। 13 दिन के उत्तर कार्यों तक वह वहीं रहता है, इसके बाद वह फिर यमलोक की यात्रा करता है। यह भी जानें गीता के उपदेशों में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्मा अमर है उसका अंत नहीं होता, वह सिर्फ शरीर रूपी वस्त्र बदलती है।

पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्याग कर यात्रा शुरू करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं, उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। इस रास्ते आत्मा जाती है स्वर्ग व नर्क ये तीन मार्ग अर्चि मार्ग, धूम मार्ग व उत्पत्ति-विनाश मार्ग हैं। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक व देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।

क्या वाकई में पुनर्जन्म जैसी घटनाएं होती हैं जानें क्या है सचक्या वाकई में पुनर्जन्म जैसी घटनाएं होती हैं जानें क्या है सच

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हिंदू धर्म के अनुसार मनुष्य का केवल शरीर मरता है उसकी आत्मा नहीं। आत्मा एक शरीर का त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है, इसे ही पुनर्जन्म कहते हैं। हालांकि नया जन्म लेने के बाद पिछले जन्म कि याद बहुत हि कम लोगो को रह पाती है। इसलिए ऐसी घटनाएं कभी कभार ही सामने आती है। पुनर्जन्म की घटनाएं भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में सुनने को मिलती है

पहली घटना
यह घटना सन 1950 अप्रैल की है। कोसीकलां गांव के निवासी भोलानाथ जैन के पुत्र निर्मल की मृत्यु चेचक के कारण हो गई थी। इस घटना के अगले साल यानी सन 1951 में छत्ता गांव के निवासी बी. एल. वाष्र्णेय के घर पुत्र का जन्म हुआ। उस बालक का नाम प्रकाश रखा गया। प्रकाश जब साढ़े चार साल का हुआ तो एक दिन वह अचानक बोलने लगा- मैं कोसीकलां में रहता हूं। मेरा नाम निर्मल है। मैं अपने पुराने घर जाना चाहता हूं। ऐसा वह कई दिनों तक कहता रहा। प्रकाश को समझाने के लिए एक दिन उसके चाचा उसे कोसीकलां ले गए। यह सन 1956 की बात है। कोसीकलां जाकर प्रकाश को पुरानी बातें याद आने लगी। संयोगवश उस दिन प्रकाशकी मुलाकात अपने पूर्व जन्म के पिता भोलानाथ जैन से नहीं हो पाई। प्रकाश के इस जन्म के परिजन चाहते थे कि वह पुरानी बातें भूल जाए। बहुत समझाने पर प्रकाश पुरानी बातें भूलने लगा लेकिन उसकी पूर्व जन्म की स्मृति पूरी तरह से नष्ट नहीं हो पाई।

दूसरी घटना
यह घटना आगरा की है। यहां किसी समय पोस्ट मास्टर पी.एन. भार्गव रहा करते थे। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम मंजु था। मंजु ने ढाई साल की उम्र में ही यह कहना शुरु कर दिया कि उसके दो घर हैं। मंजु ने उस घर के बारे में अपने परिवार वालों को भी बताया। पहले तो किसी ने मंजु की उन बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब कभी मंजु धुलियागंज, आगरा के एक विशेष मकान के सामने से निकलती तो कहा करती थी- यही मेरा घर है।
एक दिन मंजु को उस घर में ले जाया गया। उस मकान के मालिक प्रतापसिंह चतुर्वेदी थे। वहां मंजु ने कई ऐसी बातें बताई जो उस घर में रहने वाले लोग ही जानते थे।

तीसरी घटना
सन 1960 में प्रवीणचंद्र शाह के यहां पुत्री का जन्म हुआ। इसका नाम राजूल रखा गया। राजूल जब 3 साल की हुई तो वह उसी जिले के जूनागढ़ में अपने पिछले जन्म की बातें बताने लगी। उसने बताया कि पिछले जन्म में मेरा नाम राजूल नहीं गीता था। पहले तो माता-पिता ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब राजूल के दादा वजुभाई शाह को इन बातों का पता चला तो उन्होंने इसकी जांच-पड़ताल की।जो बिल्कुल सही था|

चौथी घटना
मध्य प्रदेश के छत्रपुर जिले में एम. एल मिश्र रहते थे। उनकी एक लड़की थी, जिसका नाम स्वर्णलता था। बचपन से ही स्वर्णलता यह बताती थी कि उसका असली घर कटनी में है और उसके दो बेटे हैं। पहले तो घर वालों ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब वह बार-बार यही बात बोलने लगी तो घर वाले स्वर्णलता को कटनी ले गए। कटनी जाकर स्वर्णलता ने पूर्वजन्म के अपने दोनों बेटों को पहचान लिया। उसने दूसरे लोगों, जगहों, चीजों को भी पहचान लिया।

पांचवी घटना
सन 1956 की बात है। दिल्ली में रहने वाले गुप्ताजी के घर पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम गोपाल रखा गया। गोपाल जब थोड़ा बड़ा हुआ तो उसने बताया कि पूर्व जन्म में उसका नाम शक्तिपाल था और वह मथुरा में रहता था, मेरे तीन भाई थे उनमें से एक ने मुझे गोली मार दी थी। मथुरा में सुख संचारक कंपनी के नाम से मेरी एक दवाओं की दुकान भी थी। गोपाल के माता-पिता ने पहले तो उसकी बातों को कोरी बकवास समझा लेकिन बार-बार एक ही बात दोहराने पर गुप्ताजी ने अपने कुछ मित्रों से पूछताछ की। जानकारी निकालने पर पता कि मथुरा में सुख संचारक कंपनी के मालिक शक्तिपाल शर्मा की हत्या उनके भाई ने गोली मारकर कर दी थी। जब शक्तिपाल के परिवार को यह पता चला कि दिल्ली में एक लड़का पिछले जन्म में शक्तिपाल होने का दावा कर रहा है तो शक्तिपाल की पत्नी और भाभी दिल्ली आईं।

छठवी घटना
न्यूयार्क में रहने वाली क्यूबा निवासी 26 वर्षीया राचाले ग्राण्ड को यह अलौकिक अनुभूति हुआ करती थी कि वह अपने पूर्व जन्म में एक डांसर थीं और यूरोप में रहती थी। उसे अपने पहले जन्म के नाम की स्मृति थी। खोज करने पर पता चला कि यूरोप में आज से 60 वर्ष पूर्व स्पेन में उसके विवरण की एक डांसर रहती थी। राचाले की कहानी में सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि जिसमें उसने कहा था कि उसके वर्तमान जन्म में भी वह जन्मजात नर्तकी की है।

सातवी घटना
पुनर्जन्म की एक और घटना अमेरिका की है। यहां एक अमेरिकी महिला रोजनबर्ग बार-बार एक शब्द जैन बोला करती थी, जिसका अर्थ न तो वह स्वयं जानती थी और न उसके आस-पास के लोग। साथ ही वह आग से बहुत डरती थी। जन्म से ही उसकी अंगुलियों को देखकर यह लगता था कि जैसे वे कभी जली हों। एक बार जैन धर्म संबंधी एक गोष्ठी में, जहां वह उपस्थित थी, अचानक रोजनबर्ग को अपने पूर्व जन्म की बातें याद आने लगी। जिसके अनुसार वह भारत के एक जैन मंदिर में रहा करती थी और आग लग जाने की आकस्मिक घटना में उसकी मृत्यु हो गई थी।

आठवी घटना
जापान जैसे बौद्ध धर्म को मानने वाले देशों में पुनर्जन्म में विश्वास किया जाता है। 10 अक्टूबर 1815 को जापान के नकावो मूरा नाम के गांव के गेंजो किसान के यहां पुत्र हुआ। उसका नाम कटसूगोरो था। जब वह सात साल का हुआ तो उसने बताया कि पूर्वजन्म में उसका नाम टोजो था और उसके पिता का नाम क्यूबी, बहन का नाम फूसा था तथा मां का नाम शिड्जू था। 6 साल की उम्र में उसकी मृत्यु चेचक से हो गई थी। उसने कई बार कहा कि वह अपने पूर्वजन्म के पिता की कब्र देखने होडोकूबो जाना चाहता है। उसकी दादी (ट्सूया) उसे होडोकूबो ले गई। वहां जाते समय उसने एक घर की ओर इशारा किया और बताया कि यही पूर्वजन्म में उसका घर था। पूछताछ करने पर यह बात सही निकली।

नौवी घटना
थाईलैंड में स्याम नाम के स्थान पर रहने वाली एक लड़की को अपने पूर्वजन्म के बारे में ज्ञात होने का वर्णन मिलता है। एक दिन उस लड़की ने अपने परिवार वालों को बताया कि उसके पिछले जन्म के मां-बाप चीन में रहते हैं और वह उनके पास जाना चाहती है।
उस लड़की को चीनी भाषा का अच्छा ज्ञान भी था। जब उस लड़की की पूर्वजन्म की मां को यह पता चला तो वह उस लड़की से मिलने के लिए स्याम आ गई। लड़की ने अपनी पूर्वजन्म की मां को देखते ही पहचान लिया। बाद में उस लड़की को उस जगह ले जाया गया, जहां वह पिछले जन्म में रहती थी।

दसवी घटना
सन 1963 में श्रीलंका के बाटापोला गांवमें रूबी कुसुमा पैदा हुई। उसके पिता का नाम सीमन सिल्वा था। रूबी जब बोलने लगी तो वह अपने पूवर्जन्म की बातें करने लगी। उसने बताया कि पूर्वजन्म में वह एक लड़का थी। उसका पुराना घर वहां से चार मील दूर अलूथवाला गांव में है। वह घर बहुत बड़ा है। उसने यह भी बताया कि पूर्वजन्म में उसकी मृत्यु कुएं में डुबने से हुई थी। रुबी के पुराने माता-पिता ने बताया की उनका बेटा करुणासेना 1956 में मरा था। उन्होंने उसके कुएं में डूब जाने की घटना और दूसरी बातें भी सच बताई और कहा कि लड़की की सारी बातें बिलकुल सच है।

घर बनाते समय वास्तु के नियम अपनाने से कभी नहीं आएगी खुशहाली में कमीघर बनाते समय वास्तु के नियम अपनाने से कभी नहीं आएगी खुशहाली में कमी

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हम सभी कहते हैं घर एक मंदिर होता है। इस मंदिर में आने पर हमें सुकून मिलता है। मन को शांति मिलती है। यह तभी होगा जब आप वास्तु संबंधित कुछ बातों को दरकिनार न करते हुए इन्हें आजमाएंगे। वास्तु संबंधित ये बातें छोटी-छोटी होती हैं लेकिन काम बड़े करती हैं। कुछ वास्तु टिप्स आप भी आजमाएं और घर में खुशियां और समृद्धि का प्रवेश पाएं।

घर के मु्ख्य द्वार पर पेड़-पौधे लगवाएं।

घर में जूते-चप्पल रखने का रैक बनवाएं और उसे हमेशा पश्चिम की ओर ही रखें।

घर के सामने साइकिल, स्कूटर, बाइक, स्कूटी रखने की जगह बिल्कुल भी न बनबाएं।

घर के मुख्य द्वार पर कभी भी कोई भारी चीज न लटकाएं। इससे काम में रुकावट आती है।

घर में साफ सफाई, कलर, पॉलिश आदि सब ठीक से रखें। इससे घर में सकारात्मक ऊर्जा आती है।

घर की खिड़कियों एवं दरवाजों पर पर्दे खिले हुए रंगों वाले लगाएं। आप यहां गुलाबी, हल्का नीला, हरा आदि सकारात्मक रंगों का उपयोग कर सकते हैं।

घर में कभी भी एक सीध में दरवाजे नहीं होने चाहिए। यदि ऐसा करना मजबूरी हो तो बीच में दरवाजे पर पवन घंटी( म्युजिकल बैल या स्फटिक बॉल) आदि लटका दें। इससे प्रभाव शुभ होता है।

घर में खिड़कियां सम संख्या में होनी चाहिए। सम संख्या यानी 4,6,8,12,16,18 आदि। लेकिन ध्यान रखें सम संख्या में शून्य नहीं आना चाहिए। जैसे 10, 20, 30, 40।

इस त्यौहार को मनाने के पीछे इस्लाम धर्म में छुपा है गहरा राज़इस त्यौहार को मनाने के पीछे इस्लाम धर्म में छुपा है गहरा राज़

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आने वाले दिनों में इस्लाम धर्म का खास त्यौहार ‘ईद-उल-जुहा’ दुनिया भर में मनाया जाएगा। इसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस दिन धार्मिक मर्यादाओं के अनुसार बकरे की कुर्बानी दी जाती है। वर्ष भर में इस्लाम धर्म में दो ऐसे त्यौहार आते हैं, जो सभी में हर्षोल्लास भर देते हैं। आपने शायद ईद-उल-जुहा के अलावा ईद-उल-फित्र के बारे में भी सुन रखा होगा। यह त्यौहार ईद-उल-जुहा से पहले ही आता है, जिसे मीठी ईद के नाम से भी जाना जाता है। जिन्हें इस्लाम धर्म से जुड़े त्यौहारों का ज्ञान नहीं है, वे इन दोनों त्यौहारों के बीच के अंतर को समझ नहीं पाते हैं।

लेकिन आज हम आपको काफी बारीकी से इन दोनों त्यौहारों के अंतर के साथ इन्हें मनाने की वजह, इसके पीछे की कहानी एवं किस तरह से इसे मनाया जाता है, यह सब कुछ विस्तार में बताएंगे।

ईद-उल-जुहा अत्यधिक खुशी, विशेष प्रार्थनाओं और अभिवादन करने का त्यौहार है। सभी मुस्लिम भाई इस दिन एक-दूसरे के साथ उपहार बांटते हैं, जिस तरह से हिन्दू धर्म में दीपावली पर काफी धूमधाम होती है। ठीक इसी तरह से ईद-उल-जुहा के दिन हर मुस्लिम परिवार में रौनक दिखाई देती है। ईद-उल-जुहा, यह नाम अधिकतर अरबी देशों में ही लिया जाता है, लेकिन भारतीय उप महाद्वीप में इस त्यौहार को बकर-ईद कहा जाता है, इसका कारण है इस दिन बकरे की कुर्बानी दिया जाना। लेकिन इससे पहले वाली ईद इससे बिल्कुल विपरीत है।

ईद-उल-फित्र काफी लंबे समय के रोज़े, यानी की उपवास के बाद आती है, जिसे रमज़ान का महीना कहा जाता है। यह 29 से 30 दिन का होता है, जिसके बाद अंतिम दिन मीठी सेवइयां बनाकर बांटी जाती हैं। यह सेवइयां उन सभी के लिए इनाम के समान होती हैं, जिन्होंने महीना भर रोज़े रखकर अल्लाह की इबादत में अपने धर्म को सम्मान किया है। ईद-उल-फित्र पर एक खास रकम गरीबों को दी जाती है।

माना जाता है कि ऐसा करने से जान और माल की सुरक्षा बनी रहती है। परिवार में सभी लोगों का फितरा दिया जाता है, जिसमें पौने दो किलो गेहूं दिया जाता है। इस ईद की सबसे खास बात यह है कि इसके आखिरी दिन सबसे पहले मीठा ही ग्रहण किया जाता है, इसलिए इसे मीठी ईद कहकर पुकारा जाता है। लेकिन मीठी ईद के ठीक 2 महीने बाद आती है बकरीद। इस्लाम धर्म में एक बकरे की कुर्बानी देकर मनाया जाने वाला यह त्यौहार हमेशा लोगों की चर्चा का विषय बन जाता है। लेकिन जिन लोगों को इस धर्म तथा इससे जुड़े बकरीद के त्यौहार का पूर्ण ज्ञान नहीं है, वे नहीं जानते कि क्यों बकरे की कुर्बानी देने का महत्व है।

वैसे केवल बकरे की ही नहीं, कुछ लोग ऊंट की कुर्बानी भी देते हैं। लेकिन ऐसा क्यों किया जाता है? खुशियों के त्यौहार में किसी बेज़ुबान जानवर की कुर्बानी देने का क्या अर्थ है? दरअसल इसके पीछे एक कहानी एवं उससे जुड़ी मान्यता छिपी है। इस कहानी के अनुसार एक बार इब्राहीम अलैय सलाम नामक एक व्यक्ति थे, जिन्हें ख्वाब (सपने) में अल्लाह का हुक्म हुआ कि वे अपने प्यारे बेटे इस्माइल जो बाद में पैगंबर हुए, को अल्लाह की राह में कुर्बान कर दें। यह इब्राहीम अलैय सलाम के लिए एक इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ थी अपने बेटे से मुहब्बत और एक तरफ था अल्लाह का हुक्म।

लेकिन अल्लाह का हुक्म ठुकराना अपने धर्म की तौहीन करने के समान था, जो इब्राहीम अलैय सलाम को कभी भी कुबूल ना था। इसलिए उन्होंने सिर्फ अल्लाह के हुक्म को पूरा करने का निर्णय बनाया और अपने बेटे की कुर्बानी देने को तैयार हो गए। लेकिन अल्लाह भी रहीमो करीम है और वह अपने बंदे के दिल के हाल को बाखूबी जानता है। उसने स्वयं ऐसा रास्ता खोज निकाला था जिससे उसके बंदे को दर्द ना हो। कहानी के अनुसार जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम छुरी लेकर अपने बेटे को कुर्बान करने लगे, वैसे ही फरिश्तों के सरदार जिब्रील अमीन ने बिजली की तेजी से इस्माईल अलैय सलाम को छुरी के नीचे से हटाकर उनकी जगह एक मेमने को रख दिया।

फिर क्या, इस तरह इब्राहीम अलैय सलाम के हाथों मेमने के जिबह होने के साथ पहली कुर्बानी हुई। इसके बाद जिब्रील अमीन ने इब्राहीम अलैय सलाम को खुशखबरी सुनाई कि अल्लाह ने आपकी कुर्बानी कुबूल कर ली है और अल्लाह आपकी कुर्बानी से राजी है। इसलिए तभी से इस त्यौहार पर अल्लाह के नाम पर एक जानवर की कुर्बानी दी जाती है। लेकिन ना केवल इस कहानी के आधार पर, वरन् ऐसी कई मान्यताएं हैं जो एक जानवर को कुर्बानी देने के लिए उत्सुक करती हैं। इस्लाम में कुर्बानी का अर्थ ही ऐसा है जो पाक है।

दरअसल इस्लाम, क़ौम से जीवन के हर क्षेत्र में कुर्बानी मांगता है। इस्लाम के प्रसार में धन व जीवन की कुर्बानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कड़ाती ठंड या जबर्दस्त गर्मी में बेसहारा लोगों की सेवा के लिए जान की कुर्बानी भी खास मायने रखती है। कुर्बानी का असली मतलब यहां ऐसे बलिदान से है जो दूसरों के लिए दिया गया हो। परन्तु इस त्यौहार के दिन जानवरों की कुर्बानी महज एक प्रतीक है। असल कुर्बानी हर एक मुस्लिम को अल्लाह के लिए जीवन भर करनी होती है।

काफी रोचक बात है, लेकिन कुर्बानी के लिए खासतौर पर जानवरों का चयन किया जाता है। बकरा या फिर ऊंट कुर्बान किए जा सकते हैं लेकिन वह किस रूप एवं अवस्था में हों, यह जान लेना बेहद जरूरी होता है। इसके भी कई नियम एवं कानून हैं, जिनका उल्लंघन करना आल्लाह के नियमों की तौहीन करने के समान है। इसलिए जानकारी के अनुसार, वह पशु कुर्बान नहीं किया जा सकता जिसमें कोई शारीरिक बीमारी या भैंगापन हो, सींग या कान का अधिकतर भाग टूटा हो या जो शारीरिक तौर से बिल्कुल दुबला-पतला हो। बहुत छोटे पशु की भी बलि नहीं दी जा सकती। कम-से-कम उसे दो दांत (एक साल) या चार दांत (डेढ़ साल) का होना चाहिए।

कब कुर्बानी दी जाए इसके लिए भी कड़े कानून हैं... जैसे कि कुर्बानी ईद की नमाज के बाद की जाती है, इससे पहले कुर्बानी देने का कोई अर्थ नहीं है। तथा कुर्बानी के बाद मांस के तीन हिस्से होते हैं। एक खुद के इस्तेमाल के लिए, दूसरा गरीबों के लिए और तीसरा संबंधियों के लिए। वैसे, कुछ लोग सभी हिस्से गरीबों में बांट देते हैं।

माँ लक्ष्मी को जल्द ही किया जा सकता है प्रसन्नमाँ लक्ष्मी को जल्द ही किया जा सकता है प्रसन्न

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शुक्रवार का दिन लक्ष्मी जी का दिन माना जाता है। जिन्हें धन की देवी माना जाता है। इस दिन कई लोग व्रत भी रखते है जिससे कि उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएं और सुख-शाति के साथ रह सके। धन की देवी माँ लक्ष्मी है अगर उन्हें प्रसन्न करना बहुत आसान है। अगर भक्त माँ लक्ष्मी तंत्र शास्त्र के अनुसार बताये गए उपाय का ध्यान से करे तो वह व्यक्ति माँ लक्ष्मी को जल्द ही प्रसन्न कर सकता है।

भगवती लक्ष्मी के 18 पुत्र माने जाते हैं। शुक्रवार के दिन इनके नाम के आरंभ में ॐ और अंत में 'नम:' लगाकर जप करने से मनचाहे धन की प्राप्ति होती है। जैसे - ॐ देवसखाय नम:, ॐ चिक्लीताय नम:, ॐ आनंदाय नम:, ॐ कर्दमाय नम:, ॐ श्रीप्रदाय नम:, ॐ जातवेदाय नम:, ॐ अनुरागाय नम:, ॐ संवादाय नम:, ॐ विजयाय नम:,10. ॐ वल्लभाय नम:, ॐ मदाय नम:, ॐ हर्षाय नम:, ॐ बलाय नम:, ॐ तेजसे नम:, ॐ दमकाय नम:, ॐ सलिलाय नम:, ॐ गुग्गुलाय नम:, ॐ कुरूंटकाय नम:।

तंत्र शास्त्र के अनुसार कुछ साधारण मगर सटीक उपाय करने से मां लक्ष्मी अपने भक्त पर जल्दी ही प्रसन्न हो जाती हैं और अगर जन्म कुंडली में शुक्र अपनी दशा में अशुभ फल दे रहा है। शुक्र के प्रभाव से जानें कितनी बीमारियों का सामना करना पडता है जिससे कि आपको जीवन में सुख नाम की कोई चीज न रह जाती। जिसके लिए आप नए-नए उपाय करते है कि आपका ग्रह सही हो जाए।

शुक्रवार को तीन कुंवारी कन्याओं को घर बुलाकर खीर खिलाएं तथा पीला वस्त्र व दक्षिणा देकर विदा करें। इससे मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। इस दिन दान देने का भी विशेष महत्व है इसलिए इस दिन जितना हो सके गरीबों को दान करें। सफेद रंग की वस्तु या खाद्य पदार्थ का दान करें तो और शुभ रहेगा। शुक्रवार को श्रीयंत्र का गाय के दूध के अभिषेक करें और अभिषेक का जल पूरे घर में छिंटक दें व श्रीयंत्र को कमलगट्टे के साथ धन स्थान पर रख दें। इससे धन लाभ होने लगेगा। शुक्रवार को गाय की सेवा करें श्यामा गाय मिल जाये तो और अच्छा है। इससे आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएगी।

अगर आपकी कुंडली में शुक्र दोष है तो शुक्रवार या किसी दिन सफेद कबूतर के जोड़े, हंस के जोडे या फिर सफेद बतख के जोड़े को दाना य़ा फिर ब्रेड खिलाना चाहिए। ऐसा करने से शुक्र ग्रह मजबूत होता है। शुक्रवार के दिन दूध ,दही, घी, शक्कर, रेशमी कपड़े, कपूर आदि का दान करना लाभकारी साबित होगा। शुक्र से सम्बन्धित रत्न का दान भी लाभप्रद होता है। शुक्र ग्रह की शांति के लिए ब्राह्मणों एवं गरीबों को दूध और चावल खिलाएं। रोज अपने भोजन में से एक हिस्सा निकालकर गाय को खिलाएं। किसी काने व्यक्ति को सफेद वस्त्र एवं सफेद मिष्ठान्न का दान करना चाहिए। किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए जाते समय 10 साल से कम आयु की कन्या का चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेना चाहिए। किसी कन्या के विवाह में कन्यादान का अवसर मिले तो अवश्य स्वीकारना चाहिए। शुक्रवार के दिन गौ-दुग्ध से स्नान करना चाहिए। शुक्र ग्रह के अशुभ फल से बचनें के लिए रोज श्रीसूक्त का पाठ करें और इस मंत्र का जाप करें- ऊँ शुं शुक्राय नमः।


ये सात अचूक उपाय जिससे माता आएँगी आप द्वारये सात अचूक उपाय जिससे माता आएँगी आप द्वार

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हिंदू धर्म में शुक्रवार का दिन लक्ष्मी जी का दिन माना जाता है। जिन्हें धन की देवी माना जाता है। इस दिन कई लोग व्रत भी रखते है जिससे कि उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएं और सुख-शाति के साथ रह सके। धन की देवी को प्रसन्न करना बहुत ही आसान है। धन कमाने के लिए हम क्या नहीं करते है। अगर आपको धन कमाने है तो हमेशा ईमानदारी से कमाए वो हमेशा आपके साथ रहती है, लेकिन अगर आपने गलत तरीके से धन कमाया तो वह ज्यादा देर टिकता नहीं है। शास्त्रों में भी इस बारें में कहा गया है कि धन की प्राप्ति करनी है सही मार्ग अपनाओं जिससे आपको बाद में कोई कष्ट न हो। अगर आप चाहते है कि आपके घर में कभी धन की कमी न हो।

शुक्र के प्रभाव से जाने कितनी बीमारियों का सामना करना पडता है जिससे कि आपको जीवन में सुख नाम की कोई चीज न रह जाती। जिसके लिए आप नए-नए उपाय करते है कि आपका ग्रह सही हो जाए। माता लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए हम क्या नहीं करते है। जिससे की माता हम पर प्रसन्न रहे।

1.अगर आप भी माता की कृपा पाना चाहते है। इसलिए लक्ष्मी जी की पूजा विधि-विधान से करने के बाद इन उपायों जरुर अपनाएं। इससे आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होगी। साथ ही माता लक्ष्मी आपके घर पर अखंड वास करेगी।
हर शुक्रवार के दिन गाय को ताजी रोटी खिलाए। ऐसा करने से माता की कृपा आप पर बनी रहेगी।

2.शुक्रवार के दिन उस जगह जाए। जहां पर मोर नृत्य करते है। वहां की मिट्टी लाकर एक लाल रंग के कपड़े में बांधकर पवित्र जगह में रख दें और उसकी रोज पूजा करें।

3.घर में स्वच्छटा का जरुर ध्यान दे। इससे माता लक्ष्मी जरुर प्रसन्न होती है। साथ ही कभी शाम के समय घर में झाडू न लगाए इससे घर की लक्ष्मी बाहर चली जाती है।

4.घर पर ऐसी पेड़ की टहनी लेकर आए जिसमें चमगादड़ बैठते हो। और ऐसी जगह पर रेख जहां पर उसे कोई देख न पाएं।

5.माता लक्ष्मी की विधि-विधान के साथ पूजा करने के बाद दक्षिणावर्त शंख में चावल के दाने और लाल गुलाब की पंखुडिया डालें। इससे धन लाभ का योग बनता है।

6.शुक्रवार के दिन किसी गरीब या जरुरतमंद व्यक्ति को सफेद चीजें जैसे कि आटा, चावल या सफेद रंग के कपड़े दान करें। इससे माता की कृपा आप पर बनी रहती है।

7.शुक्रवार के दिन 11 छोटे आकार के नारियल लेकर एक पीले कपड़े में बांधकर किचन के पूर्व स्थित कोने में बांध दें। ऐसा करने से आपके घर कभी भी अन्न-धन की कमी नहीं होगी।

राजा विक्रमादित्य को दिया था आदेश मूर्ति स्थापित करने का यहां भगवान गणेश जी नेराजा विक्रमादित्य को दिया था आदेश मूर्ति स्थापित करने का यहां भगवान गणेश जी ने

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भगवान गणेश के अनेकों प्रसिद्ध मंदिरों में चिंतामन गणेश मंदिर भी हैं । भारत में कुल चार चिंतामन मंदिर  हैं । कहते हैं यहां भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. भोपाल, उज्जैन, गुजरात और रणथंभौर में इन गणपति मंदिरों की सिद्धियां इनकी स्थापना की चर्चित कहानियों में छुपी हैं । 

भोपाल से 2 किलोमीटर की दूरी पर सीहोर में स्थित चिंतामन गणेश मंदिर की दंतकथा बेहद रोचक है. माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना विक्रमादित्य ने की थी लेकिन इसकी मूर्ति उन्हें स्वयं गणपति ने दी थी. प्रचलित कहानी के अनुसार एक बार राजा विक्रमादित्य के स्वप्न में गणपति आए और पार्वती नदी के तट पर पुष्प रूप में अपनी मूर्ति होने की बात बताते हुए उसे लाकर स्थापित करने का आदेश दिया.

राजा विक्रमादित्य ने वैसा ही किया. पार्वती नदी के तट पर उन्हें वह पुष्प भी मिल गया और उसे रथ पर अपने साथ लेकर वह राज्य की ओर लौट पड़े. रास्ते में रात हो गई और अचानक वह पुष्प गणपति की मूर्ति में परिवर्तित होकर वहीं जमीन में धंस गई. 

राजा के साथ आए अंगरक्षकों ने जंजीर से रथ को बांधकर मूर्ति को जमीन से निकालने की बहुत कोशिश की पर मूर्ति निकली नहीं. तब विक्रमादित्य ने गणमति की मूर्ति वहीं स्थापित कर इस मंदिर का निर्माण कराया । यहां 

हर माह गणेश चतुर्थी पर भंडारा करने की प्रथा है. स्थानीय लोगों के अनुसार 60 साल पहले यहां प्लेग की बीमारी फैली थी. तब इसी मंदिर में लोगों ने इसके ठीक होने की प्रार्थना की और प्लेग के खत्म हो जाने पर गणेश चतुर्थी मनाए जाने की मन्नत रखी. प्लेग ठीक हो गया और तब से हर माह गणेश चतुर्थी पर भंडारे की यह प्रथा चली आ रही है. 

यहां आने वाले श्रद्धालु मंदिर के पिछले हिस्से में उल्टा स्वास्तिक बनाकर मन्नत रखते हैं और पूरी हो जाने पर दुबारा आकर उसे सीधा बनाते हैं । भारत मे स्थित चार स्वयं-भू चिंतामन गणेश मंदिर में से एक अति प्राचीन विक्रमादित्य कालीन गणेश मंदिर मध्यप्रदेश के सीहोर शहर मे स्थित है जिसका प्राचीन नाम सिद्धपुर है, विक्रम संवत् 155 मे मंदिर का निर्माण कराया गया। आज भी गणेश जी की प्रतिमा आधी जमीन मे धसी हुई है। मंदिर का जिर्णौद्धार एवं सभा मंडप का निर्माण, बाजीराव पेशवा प्रथम ने कराया। मंदिर श्री यंत्र के कोणो पर निर्मित है। चिंतामन सिद्ध गणेश की स्वयं भू प्रतिमा भारत में चार स्थानो पर है ।

1. रणथंभोर (सवाई माधोपुर राजस्थान), 2. सिद्धपुर (सीहोर), 3. अवंतिका (उज्जैन) 4. सिद्धपुर (गुजरात) । इस मंदिर की मूर्ति भारत में चिंतामन उत्पन्न स्वाभाविक रूप से किया जाता है।   चिंतामन सिध्द गणेश भारत के मध्य प्रदेश राज्य के सीहोर में स्थित है। सीहोर भी प्राचीन भारत में ैपककीचनत के रूप में जाना जाता था। गणेश मूर्ति 2200 से अधिक साल पुराना है। इसलिए आप इस शक्तिशाली जगह के महत्व की कल्पना कर सकते हैं।

 

यहां चिन्तामणि भगवान की 108 फणवाली मूलनायक प्रतिमा स्थापित हैयहां चिन्तामणि भगवान की 108 फणवाली मूलनायक प्रतिमा स्थापित है

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महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित कुन्थुगिरी स्थित जैन मन्दिर की भव्यता देखते ही बनती है। इस स्थान के प्रति गहरी आस्था है और हर दिन यहां बड़ी संख्या में भक्त आते हैं। यह स्थान हालांकि प्राचीन नहीं है। इसका निर्माण और विकास मुनि श्री कुन्थुसागर जी महाराज की प्रेरणा से शुरू किया गया था। 

पहाड़ी की तहलटी में स्थित इस भव्य मन्दिर परिसर में बॉटनिकल गार्डन है, जहां लोग घूम-फिर सकते है। यहां करीब पांच हजार यात्रियों के बैठने की क्षमता का विशाल प्रवचन हॉल है। वृद्ध साधुओं के रहने के लिए यहां आश्रम भी है। 

धर्मनुरागी व्यक्ति, जो भागदौड़ की जीवन से कुछ समय आराम व पूजा करना चाहते हैं, उनके लिये यह स्थान उत्तम है।

यहां चिन्तामणि भगवान की 108 फणवाली मूलनायक प्रतिमा है, जो नौ फुट की है। यहां पर चौबीसी, गुरूमन्दिर, आगम मन्दिर, सहस्रकूट जिन मन्दिर, आदिनाथ म​न्दिर, मुनिसुव्रतनाथ मन्दिर आदि भी हैं। प्रत्येक महीने पूर्णिमा को यहां दोपहर में महामस्तकाभिषेक होता है। 

वर्तमान में क्षेत्र में निर्माण कार्य चल रहा है और पहाड़ी पर तीर्थराज सम्वेद शिखर जी की प्रतिरूप बनाया जा रहा है। इस दक्षिण का सम्मवेद शिखर या छोटे सम्मवेद शिखर भी कहा जाता है ।

अपने बच्चों को मुसीबतों से बचाना है तो करे यह व्रतअपने बच्चों को मुसीबतों से बचाना है तो करे यह व्रत

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संतान सप्‍तमी व्रत का एक और नाम मुक्ताभरण है। इस वर्ष यह व्रत 08 सितंबर यानी गुरुवाक के दिन है। इसे भाद्रपद की सप्तमी तिथि को किया जाता है। यह व्रत पुत्र-प्राप्ति, पुत्र रक्षा के लिए महिलाएं करती हैं। इस व्रत को दोपहर तक किया जाता है। इस दिन महिलाएं चौक (रंगोली) बनाकर, चंदन, अक्षत (चावल), धूप, दीप, सुपारी नारियल आदि से शिव-पार्वती की पूजा करती हैं।

इस दिन नैवेद्य-भोग के लिए खीर-पूड़ी और गुड़ के पुए बनाकर भगवान को अर्पित किए जाते हैं। इस दिन जाम्बवती के साथ श्यामसुंदर तथा उनके बच्चे साम्ब की पूजा भी की जाती है। माताएं पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति और उसके अच्छे भविष्य के लिए प्रार्थना करती हैं। 

व्रत की कथा
एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठर को बताया कि मेरे जन्म से पहले किसी समय मथुरा में लोमश ऋर्षि आए थे। मेरे माता-पिता देवकी और वासुदेव ने भक्ति पूर्वक उनकी पूजा की तो ऋर्षि ने कहा कि, हे देवकी! कंस ने तुम्हारी कई संतान को मार दिया है। इस दुख से मुक्त होने के लिए तुम संतान सप्तमी का व्रत करो।

राजा नहुष की रानी चंद्रमुखी ने भी यही व्रत किया था। तब लोमश ऋर्षि ने विधि-विधान से इस पूरी कथा को सुनाया, जो इस तरह है।

नहुष अयोध्या के प्रतापी राजा थे। वहां विष्णुदत्त नामक ब्रह्मण भी रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर स्नेह था। एक दिन दोनों सरयू में स्नान करने गईं। वहां स्‍नान के बाद कई स्त्रियां भगवान शिव-पार्वती की पूजा कर रही थीं।

उन स्त्रियों से जब उस पूजा के बारे में दोनों ने पूछा तो उन्होंने बताया कि वह संतान सप्तमी का व्रत कर रही हैं। स्त्रियों की बात सुनकर उन्‍होंने इस व्रत को करने का संकल्प लिया। मगर, घर जाकर वह इस व्रत के बारे में भूल गईं। मृत्यु के पश्चात रानी ने वानरी और ब्राह्मणी ने मुर्गी के रूप में जन्म लिया।

इसके बाद पशु योनि छोड़कर उन्‍होंने मनुष्य के रूप में फिर से जन्म लिया। इस बार चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी और रूपवती ने एक ब्राह्मणी के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी और ब्राह्मणी का नाम भूषणा रखा गया।

भूषणा का विवाह राज-पुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में दोनों की फिर दोस्ती रही। व्रत भूलने के चलते रानी इस जन्म में नि:संतान रही। उसका पुत्र तो हुआ पर वह मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कारण जल्दी मर गया। इसी बीच ब्राह्मणी को व्रत याद रहा इसलिए उसके आठ स्वस्थ पुत्र हुए।

रानी यह देखकर अपनी सहेली से द्वेष रखने लगी और उसके पुत्रों के भोजन में जहर मिला दिया। ब्राह्मणी के पुत्रों को कुछ नहीं हुआ। रानी जब कुछ न कर सकी तो वह अपनी सखी से मिली। तब ब्राह्मणी ने इस व्रत के बारे में बताया और पूर्व जन्म की पूरी कहानी सुनाई।

रानी को अपने किए पर पछतावा हुआ और फिर दोनों ने साथ मिलकर संतान सप्तमी का व्रत किया। इसके बाद दोनों को विभिन्न जन्मों में निः संतान नहीं रहना पड़ा।

क्या आप जानते हैं भगवान गणेश के अष्टविनायक मंदिरों के बारे मेंक्या आप जानते हैं भगवान गणेश के अष्टविनायक मंदिरों के बारे में

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अष्टविनायक मंदिर के आठवें स्थान में हैं महागणपति। यह मंदिर पुणे के रांजणगांव में स्थित है। यह पुणे-अहमदनगर राजमार्ग पर 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का इतिहास 9-10वीं सदी के बीच माना जाता है। मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की ओर है जो कि बहुत विशाल और सुन्दर है। भगवान गणपति की मूर्ति को माहोतक नाम से भी जाना जाता है। यहां की गणेशजी प्रतिमा अद्भुत है। प्रचलित मान्यता के अनुसार मंदिर की मूल मूर्ति तहखाने की छिपी हुई है। पुराने समय में जब विदेशियों ने यहां आक्रमण किया था तो उनसे मूर्ति बचाने के लिए उसे तहखाने में छिपा दिया गया था।

गणपति जी का यह मंदिर पुणे से 80 किलोमीटर दूर स्थित है। मोरेगांव गणेशजी की पूजा का महत्वपूर्ण केंद्र है। मयूरेश्वर मंदिर के चारों कोनों में मीनारें हैं और लंबे पत्थरों की दीवारें हैं। यहां चार द्वार हैं। ये चारों दरवाजे चारों युग, सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के प्रतीक हैं। इस मंदिर के द्वार पर शिवजी के वाहन नंदी बैल की मूर्ति स्थापित है, इसका मुंह भगवान गणेश की मूर्ति की ओर है। नंदी की मूर्ति के संबंध में यहां प्रचलित मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में शिवजी और नंदी इस मंदिर क्षेत्र में विश्राम के लिए रुके थे, लेकिन बाद में नंदी ने यहां से जाने के लिए मना कर दिया। तभी से नंदी यहीं स्थित है। नंदी और मूषक, दोनों ही मंदिर के रक्षक के रूप में तैनात हैं। मंदिर में गणेशजी बैठी मुद्रा में विराजमान है तथा उनकी सूंड बाएं हाथ की ओर है तथा उनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं।

मान्यताओं के अनुसार मयूरेश्वर के मंदिर में भगवान गणेश द्वारा सिंधुरासुर नामक एक राक्षस का वध किया गया था। गणेशजी ने मोर पर सवार होकर सिंधुरासुर से युद्ध किया था। इसी कारण यहां स्थित गणेशजी को मयूरेश्वर  नाम प्रचलित हो गया है। अष्ट विनायक में दूसरे गणेश हैं सिद्धिविनायक। यह मंदिर पुणे से करीब 200 किमी दूरी पर स्थित है। इस मंदिर के पास ही भीम नदी है। यह मंदिर पुणे के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है, क्योंकि यह करीब 200 साल पुराना है। सिद्धटेक में सिद्धिविनायक मंदिर बहुत ही सिद्ध स्थान है। मान्यता है कि यही पर भगवान विष्णु ने सिद्धियां हासिल की थी। सिद्धिविनायक मंदिर एक पहाड़ की चोटी पर बना हुआ है। जिसका मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है। मंदिर की परिक्रमा के लिए पहाड़ी की यात्रा करनी होती है। यहां गणेशजी की मूर्ति 3 फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी है। मूर्ति का मुख उत्तर दिशा की ओर है। भगवान गणेश की सूंड सीधे हाथ की ओर है।

अष्टविनायक में  तीसरा मंदिर श्री बल्लालेश्वर मंदिर है। यह मंदिर मुंबई-पुणे हाइवे पर पाली से टोयन में और गोवा राजमार्ग पर नागोथाने से पहले 11 किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर का नाम गणेशजी के भक्त बल्लाल के नाम पर पड़ा है। माना जाता है कि प्राचीन काल में बल्लाल नाम का एक लड़का था, जो गणेश जी का परमभक्त था। एक दिन उसने पाली गांव में विशेष पूजा का आयोजन किया। पूजन कई दिनों तक चल रहा था, पूजा में शामिल कई बच्चे घर लौटकर नहीं गए और वहीं बैठे रहे। इस कारण उन बच्चों के माता-पिता ने बल्लाल को पीटा और गणेशजी की प्रतिमा के साथ उसे भी जंगल में फेंक दिया। गंभीर हालत में बल्लाल गणेशजी के मंत्रों का जप कर रहा था। इस भक्ति से प्रसन्न होकर गणेशजी ने उसे दर्शन दिए। तब बल्लाल ने गणेशजी से आग्रह किया अब वे इसी स्थान पर निवास करें। गणपति ने आग्रह मान लिया। तभी से गणेश जी बल्लालेश्वर नाम से यहां विराजित हो गए।

अष्ट विनायक में चौथे गणेश जी हैं श्री वरदविनायक। यह मंदिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोल्हापुर क्षेत्र में स्थित है। यहां एक सुन्दर पर्वतीय गांव है महाड़। इसी गांव में श्री वरदविनायक मंदिर। यहां प्रचलित मान्यता के अनुसार वरदविनायक भक्तों की सभी कामनों को पूरा करते है। इस मंदिर में नंददीप नाम का एक दीपक है जो कई वर्षों में प्रज्जवलित है। मान्यता है कि वरदविनायक का नाम लेने मात्र से ही आपकी सभी मनोकामनां पूर्ण हो जाती है।

अष्टविनायक में पांचवें स्थान में  है चिंतामणि गणपति। यह मंदिर पुणे जिले के हवेली क्षेत्र में स्थित है। मंदिर के पास ही तीन नदियों भीम, मुला और मुथा का संगम है। इस मंदिर के बारें में मान्यता है कि  यदि कोई भक्त का मन बहुत विचलित है और जीवन में दुख ही दुख प्राप्त हो रहे हैं तो इस मंदिर में आने पर उसकी सभी समस्याएं दूर हो जाएगी।  माना जाता है कि भगवान ब्रहमा ने अपने विचलित मन को वश में करने के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी।

अष्टविनायक में छठें स्थान में है श्री गिरजात्मज। यह मंदिर पुणे-नासिक राजमार्ग पर पुणे से करीब 90 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। क्षेत्र के नारायणगांव से इस मंदिर की दूरी 12 किलोमीटर है। गिरजात्मज का अर्थ है गिरिजा यानी माता पार्वती के पुत्र गणेश। यह मंदिर एक पहाड़ पर बौद्ध गुफाओं के स्थान पर बनाया गया है। यहां लेनयादरी पहाड़ पर 18 बौद्ध गुफाएं हैं और इनमें से 8वीं गुफा में गिरजात्मज विनायक मंदिर है। इन गुफाओं को गणेश गुफा भी कहा जाता है। मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब 300 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। यह पूरा मंदिर ही एक बड़े पत्थर को काटकर बनाया गया है।

अष्टविनायक में सातवें स्थान में है विघ्नेश्वर गणपति। यह मंदिर पुणे के ओझर जिले में जूनर क्षेत्र में स्थित है। यह पुणे-नासिक रोड पर नारायणगावं से जूनर या ओजर होकर करीब 85 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार विघनासुर नामक एक असुर था जो संतों को प्रताणित करता रहता था। भगवान गणेश ने इसी क्षेत्र में उस असुर का वध किया और सभी को कष्टों से मुक्ति दिलवाई थी। तभी से यह मंदिर विघ्नेश्वर, विघ्नहर्ता और विघ्नहार के रूप में जाना जाता है।

अष्टविनायक मंदिर के आठवें स्थान में हैं महागणपति। यह मंदिर पुणे के रांजणगांव में स्थित है। यह पुणे-अहमदनगर राजमार्ग पर 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का इतिहास 9-10वीं सदी के बीच माना जाता है। मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की ओर है जो कि बहुत विशाल और सुन्दर है। भगवान गणपति की मूर्ति को माहोतक नाम से भी जाना जाता है। यहां की गणेशजी प्रतिमा अद्भुत है। प्रचलित मान्यता के अनुसार मंदिर की मूल मूर्ति तहखाने की छिपी हुई है। पुराने समय में जब विदेशियों ने यहां आक्रमण किया था तो उनसे मूर्ति बचाने के लिए उसे तहखाने में छिपा दिया गया था।

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